17 April 2024

बाहाद्दुर शाह ज़फ़र ख़वाजह ह़सन निज़ामी - पाकिस्तान से : रीरिटन बाई काशिफ़ फ़ारूक़ (05-09-2017).

 




बहद्दुर शाह ज़फ़र

ख़वाजह ह़सन निज़ामी

 

ख़वाजह ह़सन निज़ामी ने आख़री मुग़ल बादशाह बहाद्दुर शाह ज़फ़र कि लाडली बेटी कुलसूम ज़मानी बेगम की दास्तान उस की अपनी ज़बानी लिखी है| कुलसूम ज़बानी बेगम बताती हैं कह जिस वक्त मेरे अब्बा की बादशाहत ख़तम हुई और तख़्त व ताज के लुट्ने का वक्त आया तो हमारे मह़ल येनी लाल क़िलह मैं एक कुहराम मचा हुआ था| तीन वक्त से किसी ने कुछ नहीं खाया प्या थ| मेरी ढाई साल की बच्ची ज़ैनब दूध से बिलक रही थी| हम सब इसी परेशानी मैं थे कह अब्बा हज़ूर ने हमैं बुला भेजा| हम इन की ख़िदमत मैं ह़ाज़िर हुए तो वह मूसल्लह पर तशरीफ़ फ़र्मा थे और तसबीह़ उन के हाथ मैं थी| मुझे देख कर उनहौं ने फ़र्माया कह बेटी मैं ने तुमहैं ख़ुदा सुपर्द किया| तुम अपनी बच्ची और ख़ाविन्द को साथ लेकर यहाँ से फ़ौरन कहीं दूर चली जाओ| अगर तुम लोग मेरे साथ रहे तो नुक़सान का अन्देशह हैं| दूर चले जाओ गे तो शायद अल्लह कोई बहतरी का सामान पैदा कर्दे| यह कह कर उनहौं ने हमारे लिये अल्लह के ह़ज़ूर गिड़गिड़ा कर दुआ़ माँगी "या अल्लह इन ला वारिस और बेकस और्तौं की आब्रू बचाईयो| तैमूर के घराने की यह और्तैं जिनहौं ने कभी मह़ल से बाहिर क़दम नहीं रखा था मैं तेरे ह़वाले कर्ता हूँ| तू ही इन की मदद फ़र्मा"| इस के बअ़द उनहौं ने मेरे ख़ाविन्द मिर्ज़ा ज़्याउद्दीन को कुछ जवाहिरात अ़नायत किये और बड़ी ह़स्रत व यास से हमैं रूख़सत किया|

 

राक के पिछले पैहर फिर हमारा क़ाफ़लह मह़ल से निकला| हमारे क़ाफ़ले मैं मेरे ख़ाविन्द और बच्ची के इलावह अब्बा ह़ज़ूर की बेगम नूर मह़ल भी थीं| अब्बा के बैहनूई मिर्ज़ा उमर सुल्तान ‌और अब्बा की एक समधन थीं| गोया हमारे क़ाफ़ले मैं दो मर्द और बाक़ी और्तैं थीं| लाल क़िलअ़े से हमेशह केलिये जुदा हो कर हम कोराली गाँव पुहंचे और अपने रथ बान के मकान पर क़्याम क्यिा| वहाँ हमैं खाने को बाज्रह की रोटी और पीने को छाछ दी गई| भूक की ह़ालत मैं यह चीज़ैं भी हमैं बरबानी और मतनजन से ज़्यादह लज़ीज़ मअ़लूम हूईं| एक दिन तो हम ने वहाँ पर अमन व सुकून से गुज़ारा| लेकिन दूस्रे दिन इलाक़े के जाट और गोजर जमअ़ होकर हमैं लूटने केलिये आगए| उन के साथ उन की और्तैं भी थीं| वह हम लोगों से चिमट गईं| और हमारे तमाम ज़ेवर और कपड़े उन लोगौं ने उतार लोये| इस लूट मार के बअ़द हमारे पास इतना कुछ भी नहीं बचा कह हम एक वक्त की रोटी ही खा सक्ते| मेरी नन्ही सी बच्ची प्यास की शिद्दत से तड़प रही थी| सामने के एक घर से ज़मीन्दार निकला तो मैं ने काहा कह भाई थोड़ा सा पानी इस बच्ची को पिला दे| ज़मीन्दार फौरन एक मिट्टी के बर्तन मैं पानी ले आया| और काहा कह आज से मैं तेरा भाई और तू मेरी बेहन| इस ज़मीन्दार का नाम बस्ती था| और यह इस कोराली गाँव का खाता पीता ज़मीन्दार था| उस ने अपनी बैल गाड़ी तय्यार कर्के हम को इस मैं सवार किया| और हम से हमारी मंज़िल का पूछा| हम ने अजाड़ह ज़िलहअ़ मीरठ मैं अपने शाही ह़कीम मीर फ़ैज़ अ़ली के हाँ जाने की ख़वाहिश का इज़हार किया| वहाँ पुहंचे तो मीर फ़ैज़ ने हम से ऐसी बेमुरव्वती का इज़हार किया कह हमैं एक लमह़ह भी वहाँ रुकने केलिये नह काहा|

 

उस ने साफ़ कैह द्या कह तुम लोगौं को अपने पास ठहरा कर अपना घर तबाह नहीं कर सक्ता| हम सब बेह़द माईयूस हुए| लेकिन आफ़्रीन है उस बस्ती ज़मीन्दार पर कह जिस ने मुझे अपनी बैहन काहा था| उस ने आख़िर वक्त तक हामरा साथ नह छोड़ा| वहाँ से हम ने ह़ैद्राबाद का रुख़ क्यिा| और्तैं बस्ती की गाड़ी मैं सवार थीं और मर्द पैदल चल रहे थे|

 

तीस्रे रोज़ एक नद्दी के किनारे पुहंचे तो वहाँ कोमल के नवाब की फ़ौज ने डेरे डाल रखे थे| उनहौं ने जूँही सुना कह हम शाही ख़ान्दान के इफ़्राद हैं तो उनहौं ने हमारी बड़ी ख़ातिर मदारत की| और हाथी पर सवार करा कर हमैं नद्दी के पार पुहंचाया| इतने मैं सामने से अंग्रेज़ की फ़ोज आगई| और दोनों फ़ौजौं मैं लड़ाई शुरू होने लगी| नवब के आदमियों ने हमैं फ़ौरन वहाँ से खिसक जाने को काहा| सामने खेत थे| जिन मैं पकी हूई फ़सल खड़ी थी| हम लोग उस मैं छुप गए| अचानक उस खेत मैं एक गोली आई जिस से वाहाँ पर आग भड़क उठी| और पूरा खेत जलने लगा| हम सब वहाँ से भागे| लेकिन हमैं भागना भी नहीं आता था| हम घास में उलझ कर गिर्ते पड़ते थे| सरौं की चाद्रैं उतर गईं| पाँव ज़ख़मौ से ख़ून आलूद हो चुके थे| प्यास के मारे मूँह से ज़ुबानैं बाहिर निकली हूईं थीं| नूर मह़ल बेगम तो खेत से निकल्ते ही चक्रा कर गिर पड़ीं बेहोश होगईं| हम सब परेशान थे कह अब क्यिा करैं और किधर को जाऐं| जब दोनौं फ़ौजैं लड़ती हूई दूर निकल गईं तो बस्ती नद्दी से पानी ले आया| हम सब ने पिया ‌और नूरमह़ल बेगम के चैहरे पर छिड़का| होश मैं आते ही वह रो पड़ीं कह मैं ने ख़वाब मैं बादसाह ह़ज़ूर को ज़ंजीरौं मैं जकड़े देखा है| सब ने उन को तसल्ली दी और हम फिर से बस्ती की गाड़ी मैं सवार होगए| एक गाँव के क़रीब रात होगई| तो हम ने वहीं रात गुज़ार्ने का फ़ैसलह कर्लिया|

 

यह मुसलमान राजपूतौं की एक बस्ती थी| गाँव के नम्बर्दार ने हमारे लिये एक छप्पर ख़ाली कर्वा द्या| जिस मैं सूखी घास फूस का बिछोना था| इस्त्रह़ के कूड़े किरकिट के ढेर सोने से तो मेरा जी उलझने लगा| लेकिन मजबूरी थी| किया कर्ते| रात को पिस्सूऔं ने भी बुहत तंग क्यिा और यूँ रोते धोते वह रात वहाँ बसर की| इसके बअ़द हम ह़ैद्राबाद पुहंच गए और सीता राम के इलाक़े मैं एक मकान किराए पर रह कर रहने लगे|

 

मेरे ख़ाविन्द के पास एक क़ीमती अंगूठी थी जो कोराली गाँव के जाटौं की लूट खसूट से बच गई थी| जबलपूर मैं उनहौं ने उसे फ़रोख़्त कर द्या| और उसी से ख़र्च चलाते रहे| ह़ैद्राबाद मैं भी चन्द रोज़ इनही पैसौं मैं गुज़ारा क्यिा| लेकिन आख़िर वह भी ख़तम होगए| पेट भर्ने केलिये घर मैं कुछ नह बचा था| मेरे ख़ाविन्द एक आ़ला दर्जे के ख़ुशनवीस थे| उनहौं ने बड़े ख़ूबसूरत अन्दाज़ मैं द्रूद शरीफ़ लिखा और बाज़ार मैं जाकर पाँच रुपे मैं उस का हद्या वसूल क्यिा| इस्के बअ़द उनहौं ने यह काम बाक़ाइदगी से शुरू कर द्या| और हमारी गुज़र बसर अच्छी होने लगी| हमारी रेहाएश के नज़्दीक एक नद्दी बहती थी| इस मैं तुग़्यानी आजाने के ख़ौफ़ से हम वहाँ से निज़ाम ह़ैद्रावाद के एक मुलाज़िम दारोग़ह अह़मद के एक मकान मैं किराय पर आकर रहने लगे| चन्द ही रोज़ बअ़द शहर मैं ख़बर मशहूर होगई कह नवाब शकर जंग जिस ने शहज़ादौं को अपने पास पनाह दी थी अंग्रेज़ के ज़ेरेअ़ताब आगय हैं| साथ ही अंग्रेज़ौं ने ह़ुकुम द्या कह कोई भी शख़्स शहज़ादौं को पनाह नह दे| बल्को उनहैं ग्रिफ़्तार कराने की कोशिश करे| यह सुन कर हम घब्रा गय| और मैं ने अपने ख़ाविन्द को बाहिर जाने से रोक द्या| चन्द दिन तो घर पर बैठे रहे| लेकन जब नौबत फ़ाक़ौं तक पुंहची तो मजबूरन उनहौं ने बारह रुपय माहवार पर एक नवाब के लड़के को क़ुरआन पढ़ाने की मुलाज़मत इख़्त्यार कर्ली|

 

वह नवाब मेरे ख़ाविन्द के साथ अदना मुलाज़मौं का सा सुलूक कर्ता था| जिस से वह बेह़द परेशान थे| इसी अस्ना मैं किसी ने म्यिाँ नवाब साह़ब को हमारे बारे मैं बता द्या| म्यिाँ साह़ब रात के वक्त हमारे घर तशरीफ़ लाए| बुहत देर तक हमारे ह़ालात दर्याफ़्त कर्ते रहे| और इस के बअ़द तशरीफ़ ले गए| सुबह़ को उनहौं ने पैग़ाम भिजवाया कह हम ने तुम सब के ख़र्च का इंतज़ाम कर्द्या है| तुम लोग ह़ज केलिये मक्कह मुअ़ज़्ज़मह जाने की तय्यारी करो| यह ख़बर सुन कर हम सब बेह़द ख़ुश हुए| और मक्कह जाने की तय्यारीयाँ कर्ने लगे|

 

ह़ैद्राबाद से हम बम्बई केलिये रवानह हुए| मैं ने अपने मूँह बोले भाई बस्ती को ख़र्च दे कर रुख़सत क्यिा और ख़ुद जहाज़ मैं सवार होगए| जहाज़ मैं जो मुसाफ़िर भी हमारे बारे मैं सुंता था कह हम शाही घराने से तअ़ल्लुक़ रख्ते हैं हमैं मिलने और देखने का शौक़ ज़ाहिर कर्ता| मक्कह पुहंचे तो अल्लह ने हमारी रेहाएश का बुहत ही अच्छा बन्दोबस्त कर्द्या| अब्दुल क़ादिर नामी मेरा एक मुलाज़िम था जिसे मैं ने आज़ाद कर्के मक्के भेज द्या था| यहाँ आकर उस ने ख़ूब दौलत कमाई और ज़म ज़म का दारोग़ह मुक़र्र हो ग्या| उस को हमारे आने की इत्तलअ़ मिली तो वह दौड़ा हूआ आया| और क़दमौं मैं गिर कर ख़ूब रोया| उस का मकान बुहत अच्छा और आराम दह था| हम सब वहीं ठैर गए| चन्द रोज़ बअ़द रोम के सुल्तान के नाएब को जो मक्के मैं रहते थे हमारी आमद की इत्तलाअ़ मिली| वह ख़ुद हमैं मिल्ने चले आए| और ख़वाहिश ज़ाहिर की कह मैं आप सब के आने कि इत्तलअ़ ह़ज़ूर सुल्तान को देना चाहता हूँ| इस लिये मैं ने उनहैं जवाब द्यिा कह हम एक बड़े सुल्तान के दरबार मैं आगए हैं| इस लिये हमैं किसी दूस्रे सुल्तान की पर्वाह नहीं|

 

बैहरह़ाल नाएब सुल्तान ने हमारे इख़्राजात केलिये एक मअ़क़ूल रक़म मुक़र्र कर्दी| और हम नौ बरस तक वहाँ मुक़ीम रहे| इस के बअ़द एक साल बग़दाद शरीफ़ और एक साल नजफ़ और कर्बला ए मअ़ला मैं बसर क्यिा| वतन से दूर हुए इतनी मुद्दत होगई थी| दहली की याद आने लगी| यहाँ पर अंग्रेज़ सर्कार ने हम पर तरस खा कर सिरफ़ दस रुपय माहवार पंशन मुक़र्र की| इस रक़म का सुन कर मुझे बेह़द हंसी आई कह मेरे बाप का इतना बड़ा मुल्क ले कर उस का मुआ़वज़ह सिरफ़ दस रुपय देते हैं| लेकिन फिर ख़्यल आया कह मुल्क तो ख़ुदा का है वह जिस को चाहे दे देता है और जिस्से चाहे छीन लेता है| उस के कामौं मैं किसी इंसान को दम मार्ने की जुर्रत नहीं|

 

पाकिस्तान से : रीरिटन बाई काशिफ़ फ़ारूक़ (05-09-2017).


 

 


No comments:

Post a Comment