17 April 2024

“फ़्रामोश” इंतेज़ार हुसैन 1993 - रिटन बाई काशिफ़ फ़ारूक़: पाकिस्तान से: 09-01-2011

 






फ़्रामोश

इंतेज़ार हुसैन

1993


कहानी का मुसन्निफ़ रोज़ाना सुबहा की सैर के लिये बाहिर जाया कर्ता था। जिस जगा उस के मुहल्ले की गलियाँ ख़तम होती थीं, तक़्रीबन वहीं से आबादी भी ख़तम होजाती थी। वहीं से बाहिर की तरफ़ एक लम्बी सी सड़क निकल्ती थी जिस पर मुसन्निफ़ सैर के लिये चल निकल्ता। सड़क से थोड़ी दूर जाकर महसूल चुंगी कि चोकी थी। जहाँ पर ख़रबूज़ों और ककड़ियों के टोक्रे पड़े होते या दूसरी तरफ़ सबज़ियों से लदी हुई गधा गाड़ियाँ खड़ी नज़र आतीं। आगे एक रहट था और उस से आगे टियूब वैल और उस का सीमैंट का बना हुअ हौज़। जिस मैं टियूब वैल का पानी गुज़र्ता था। टियूब वैल से बीस तीस क़दम के फ़ास्ले पर एक छोटी सी कोठी थी। जिस पर चारों तरफ़ से सफ़ेदी हुई हुई थी। कोठी के बाहिर किसी इंजीनियर के नाम की तख़्ती लगी हुई थी। लेकिन बज़ाहिर वो ग़ैर आबाद और पुरअसरार सी लगती थी़। कियूंके वहाँ पर ज़िन्दगी के आसार बुहत कम नज़र आते थे। कोठी से आगे बुहत दूर दोनों तरफ़ खुला मैदान था। उस के बाद सड़क एक तेज़ मोड़ खाती और मिशन इस्कूल की इमारत सामने आजाती। उस से ख़ास दूर ईंटौं के भट्टे कि चिमनियाँ नज़र आजाती। इस के बाद सड़क के आगे रेल की पटड़ियाँ आजातीं जहाँ रेलवे की तरफ़ से फाटक लगा हुअ था। बस यहीं से मुसन्निफ़ अपनी वापसी कर्ता था। मुसन्निफ़ का ये रोज़ का मामूल था के वो सड़क पर सैर केलिये निकल्ते ही नीम के कसी पेड़ से एक मिसवाक तोड़ लेता और उसे चबाते हुए सड़क पर चल निकल्ता जिस जगहा पर रेल की पटड़ी सड़क को काट्ती बस वहीं से वो वापिस लौट जाता, ये उस की आख़री हद थी। वापसी पर वो टियूब वैल के हौज़ से अपना मुँ हाथ धोता और चप्पल उतार कर मटी मै अटे पाऊँ पानी मैं डाल देता, तो उसे अजीब सी फ़रहत महसूस होती।


कोठी के सामने से गुज़र्ते हुए कभी कभार एसा होता के अन्दर से एक सफ़ेद रंग की गेन्द बाहिर सड़क पर आजाती जिसे उठाने केलिये एक नोजवान सा ख़बसूरत लड़का जो हुलिये से मुलाज़िम लगता सड़क पर अता और बग़ैर किसी तरफ़ ध्यान दिये गेन्द उठा कर कोठी मैं दाख़िल होजाता। कभी कभार होने वाले इस वाक़े से अन्दाज़ा होता के कोठी ग़ैर आबाद नहीं है। वर्ना आम तौर पर कोठी मैं ज़िन्दगी के आसार बुहत कम नज़र आते एक दिन एक छोटा सा अजीब वाक़ेअ़ हुअ। मुसन्निफ़ ने देखा के कोठी के ऐन सामने से गुज़रने वाली सड़क पर सफ़ेद चाक से लफ़्ज़ "फ़्रामोश" लिखा हुअ है। मुसन्निफ़ वहाँ पर ये लफ़्ज़ लिखा हुअ देख कर ठिठक सा ग्या। कियोंके इस लफ़्ज़ से उस की भी बाज़ यादैं वाबस्ता थीं। दूस्रे दिन जब वो सड़क से गुज़रा तो लफ़्ज़ फ़्रामोश के हरूफ़ कुछ मिट से गय थे। चन्द दिन इसी तरह गुज़र गय। एक दिन मुसन्निफ़ ने देखा के कोठी की सफ़ेद और साफ़ शफ़्फ़ाफ़ दीवार पर काले कोयले से लफ़्ज़ फ़्रामोश लिखा हुअ था। उस ने ये सोच कर अपने दिल को तसल्ली दी के शायद किसी शरीर बच्चे की शरारत का नतीजा है। चुनाँचे सैर से वापसी के दौरान उस ने देखा के एक अधेड़ उमर का शख़्स जो चहरे से अफ़सर लगता था ‌‌और शबख़वाही का लिबास पहने हुए था अपनी निग्रानी मैं वो लफ़्ज़ मिटवा रहा था।


दो तीन दिन बाद मुसन्निफ़ ने इसी मुक़ाम पर वो लफ़्ज़ फिर लिखा हुअ देखा। एसा कई मर्तबा हुअ के मुसन्निफ़ जब सैर के लिये कोठी के पास से गुज़र्ता तो वो लफ़्ज़ दीवार पर मोजूद होता लेकिन वाप्सी पर वो या तो मिटाया जाचुका होता या फिर मिटाया जा रहा होता। इसी दोरान मैं मुसन्निफ़ को अपने काम काज के सिलसिले मैं शहर से बाहिर जाने पड़ा। पन्द्रा दिन बाद उस्की वाप्सी हुई। सुबहा को सैर के लिये वो निकला तो वो लफ़्ज़ वाहाँ लिखा हुअ मौजूद था लेकिन किसी ने उसे मिटाने की कोशिश नहीं की थी। दो तीन दिन इसी तरह गुज़र गय। लेकिन फिर भी कसी ने उस लफ़्ज़ को नहीं मिटाया था। मुसन्निफ़ ने सोचा के शायद इंजिनियर साहब किसी लम्बे दौरे पर निकल गय हौं या फिर उन का तबादला होगया हो। ये भी मुमकिन है के वो बीमार हौं। बहरहाल ये मसला हल ना होसका।


इसी दौरान मैं बारशौं का सिलसिला शुरू होगया। लगातार बारशैं होने लगीं। सूखे हुए तालाब बारिश के पानी से भर गय। फ़ज़ मैं नमी के बाइस दर दीवार पर सफ़ेद काई जमना शुरू होगई। इंजिनियर साहब की कोठी पर वो लफ़्ज़ उसी तरह मौजूद था। लेकिन उस के हरूफ़ धुन्दले पड़ गय थे। मुसन्निफ़ को ख़दशा हुअ के कहीं ये लफ़्ज़ बिलकुल ही ना मिट जाय। द्रासल इस लफ़्ज़ से उस को एक ताअ़ल्लुक़ सा होगया था। बरसात का मौसम ख़तम होने लगा। बारिश भी कभी कभार होती थी। तालाबौं मैं कम होना शुरू होगया। लोगौं ने बरसात मैं अपनी गिरी हुई दीवारौं और छतौं की मरम्मत का काम शुरु करदिया। एक दिन मुसन्निफ़ को इंजिनियर साहब की कोठी के एहाते मैं भी चूने की बोरी रखी हुई नज़र आई। ज़ाहिर है के कोठी के दर दीवार की भी सफ़ेदी नोने वाली थी। मुसन्निफ़ का ध्यान फ़ौरन लफ़्ज़ फ़्रामोश की तरफ़ गया। ये लफ़्ज़ ख़ासा मद्धम पड़ चुका था। लेकिन सफ़ेदी के दौरान तो उस ने बिलकुल ही मिट जाने था। इस ख़्याल से मुसन्निफ़ के दिल मैं उदासी की एक लहर दौड़ गई। जिस से उसे बेपनहा उंस होगया था। दो तीन दिनौं मैं पूरी की पूरी कोठी पर सफ़ेदी होगई लेकिन मुसन्निफ़ ये देख कर दंग रह गया के जिस जगा दिवार पर लफ़्ज़ फ़्रामोश लिखा था वहाँ पर इस तरीक़े से सफ़ेदी की हुई थी के उस पर एक बुन्द भी चूने की नहीं पड़ी थी। वो लफ़्ज़ अपनी जगहा पर जूँ का तूँ क़ायम था।


इस के बाद मुसन्निफ़ कुछ अर्से के लिये दौरे पर निकल गया। वापस आया और उस कोठी के पास से गुज़्रा तो उस ने देखा को कोठी के ब्राम्दे मै तीन चार बच्चे धमा चौकड़ी मचा रहे हैं। कुछ ख़वातीन उनहैं शोर ग़ुल करने से मना करने केलिय आवाज़ैं दे रही हैं। बच्चौं को डाँटने के लिये एक मर्दाना आवाज़ भी आई। मुसन्निफ़ को बेहद अजीब लगा। इस कोठी मैं ये नई ज़िन्दगी अचानक कैसे ‌‌और कहाँ से फूट पड़ी। ख़ामोश ब्राम्दौं शीशे वाले बन्द दरवाज़ौं और गूँगे कम्रौं की काया कैसे पलट गई। उस ने सोचा मुमकिन है के इंजिनियर साहब के कहीं से महमान आगय हौं। दूस्रे दिन उस ने देखा के कोठी के बाहिर वाले फाटक के पास सफ़ेदी के डोल ड्रम वग़ैरा रखे हुए थे। उस ने नज़र उठा कर देखा वाक़ई सफ़ेदी होचुकी थी। उसकी नज़्रैं फ़ौरन दिवार की तरफ़ गईं जहाँ वो लफ़्ज़ लिखा हुअ था। मुसन्निफ़ का दिल धक से रह गया। दीवार पर सफ़ेदी होचुकी थी। वो लफ़्ज़ मुकम्मल तौर पर मिटाया जाचुका था। उस्से सबर ना होसका।


माली कोठी की बाहिर वाली दीवार के साथ लगी हुई बेलों को काट रहा था। उस ने उस के क़रीब जाकर दरयाफ़्त किया के आज इंजिनियर साहब के महमान आय हुए हैं? माली ने बताया के नहीं नय इंजिनियर साहब आय हैं। पहले वाले इंजिनियर साहब पैंशन लेकर चले गय हैं। माली ने मुसन्निफ़ को तबाया के पुराने इंजिनियर का अब पैंशन पर चले जाना ही बहतर था। कियोंके अब उन का दिमाग़ ठिकाने नहीं रहा था। द्रासल इंजिनियर साहब की कोई औलाद नहीं थी, उनहौं ने एक लड़का ले कर पाला था। वो उस से बुहत लाड प्यार कर्ते थे। वो लड़का उनकी ज़िन्दगी का महवर था। वो उसी को देख कर जीते थे। ना कसी से मिल्ते मिलाते थे। दफ़्तर से घर और घर से दफ़्तर बस दो ही उन के ठिकाने थे। अचानक वो लड़का लू लगने से बीमार होगया ‌‌और मर गया।


इंजिनियर साहब की दुनिया उजड़ गई। वो फिर से अकेले रह गय। वो बुहत दुखी होगय थे। नौक्री से उन का दिल उचाट होगया था। वो खोए खोए से रहने लगे थे। उन के दिल मैं हर वक़्त उसी लड़के का ख़्याल समाया रहता था। उनहौं ने उस लड़के की एक एक चीज़ को सम्भाल कर रखा हुअ था। यह कह कर माली ने मुसन्निफ़ की तरफ़ देखे बग़ैर अपनी क़ैंची उठाई और बेल काटने मैं मस्रूफ़ गोगया।


मुसन्निफ़ जो हमेशा सैर के दोरान रेल की पटड़ी के पास से होकर वापिस आया कर्ता था आज उसे ये फ़ासला इतना तवील लगा के वो बेज़ार होकर रेल की पटड़ी को छूए बग़ैर वापिस आगया।


रिटन बाई काशिफ़ फ़ारूक़: पाकिस्तान से:

09-01-2011

 


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