गोन्दनी वाला तकिया
ग़ुलाम अब्बास
(1993)
मुसन्निफ़ अभी
बच्चा ही था के उस के वालिद फ़ोत होगय। पन्द्रा ब्रस कि उमर मैं वालदा भी इंतेक़ाल
कर गईं। मुसन्निफ़ का कोई और भाई और बहन भी नहीं थी, दुनिया मैं बिलकुल अकेला होजाने के एहसास ने
उसे सख़्त दिलबर्दाश्ता करदिया, उस ने अपना घर बार छोड़ दिया, कुछ तो उसे सय्याहत का शौक़ था और फिर पेट
पालने के लिये रोटी कमाना भी ज़रूरी था, चुनाचे वो बुहत से मुल्कों कि ख़ाक छाँता
फिर्ता रहा, आख़िर कार उस ने
समुन्दर पार एक मुल्क मैं रहायश इख़्त्यार करली, ओर छोटा मोटा कारोबार शुरू करदिया।
शादि भी उस ने वहीं की एक औरत से कर ली, जिस से उस के बच्चे होगय, कारोबारि मस्रुफ़ियात मैं वो इस क़दर फंसा के
उस मुल्क से उस का निकलना मुशकिल होगया, कुछ अरसे बाद उसे चन्द अहम कारोबारि उमूर के
लिये अपने वतन जाने कि ज़रूरत पेश आई।
फिर वहाँ उसे अपनी आबाई जायदाद का भी मसला हल करने था, चुनाँचे वो वतन जाने के लिये रेल के तवील सफ़र
के बाद अपने क़स्बे के छोटे से स्टेशन पर उत्रा. उस ने बड़ी मुद्दत के बाद अपने
आबाई वतन सरज़मीन पर क़दम रखे थे, शदीद सर्दी, सफ़र की थकावट ओर बेआरामी के बायस उस के दिल
मैं मसर्रत व शादमानी कि वो केफ़ियत पैदा ना होसकी जो इतनी मुद्दत के बाद वतन कि
सरज़मीन पर क़दम रखते हुए उसे महसूस होनी चाहिय्ये, उस के दिल मैं वतन की मुहब्बत के वो जज़बात भी
पैदा ना होसके जो मुद्दत बाद वतन वापिस आने वालों के दिलों मैं यक़ीनी तौर पर पैदा
होजाया कर्ती है।
वो अपने आप को वहाँ अजनबी महसूस कर रहा था, इस्टेशन से उस ने होटल मैं जाने के लिये ताँगा
कराय पर लिया, जिस मैं ठैरने
केलिये उसके वकील ने उसे कैह रखा था, इस्टेशन से बाहिर निकल्ते हि मुसन्निफ़ ने
महसूस किया के क़सबा पहले से बुहत ज़्यादा फैल गया है, जो इलाक़े उसके बचपन के ज़माने मैं उजाड़ पड़े
थे, वहाँ अब छोटे
छोटे बाज़ार बन गय थे जिन मैं ख़ासी चहल पहल थी, तमाम इमार्तैं पुख़्ता ईंटौं कि बनि हुईं थीं, अगर्चे कहीं कहीं इक्का दुक्का कच्चे घर भी
नज़र आरहे थे, अपने क़स्बे कि
इसक़दर तरक़क़ी को देख कर मुसन्नफ़ि के दिल मैं ख़ुशी का अहसास होने के बजाय
बेगानगि का अहसास बढ़ रहा था, उसे कसि चीज़ से भी अपना तअ़ल्लुक़ नज़र नहीं
आरहा था, उसे स्टेशन के
इलावा कोई एसी जानी पहचानी शै नज़र ना आई, जो उस कि पुरानि यादों को ताज़ा करने मैं
मुअ़विन साबित होत।
थोड़ी देर मैं होटल आगया, होटल मैं उसे ख़ासा खुला कम्रा मिला, मुसन्निफ़ ने हाथ मूँ धोया और कुछ खा पी कर
आराम करने की ग़र्ज़ से लेट गया और कुछ ही देर मैं नीन्द की आग़ोश मैं चला गया, दो घंटे बाद सो कर उठा तो उसकी वबियत कसी क़दर
बहाल होचुकी थी, वो लिबास तब्दील
करके घूमने की ग़र्ज़ से निकल खड़ा हुआ, उसके क़दम ख़ुद बा ख़ुद उस इलाक़े की जानिब उठ
गय जहाँ उस का बचपन गुज़्रा था, कुछ ही देर बाद वो उस हवेली के सामने खड़ा था
जिसे उस के बुज़ुर्गों ने तामीर किया था, हवेली की हालत मख़्दूश थी, शायद उसकी कसि ने देख भाल नहीं की थी,
हवेली के सामने छोटे छोटे चार पाँच बच्चे मैले कुचैले कपड़ौं मैं मलबूस
गोलियों से खेल रहे थे, उन मैं से एक बच्चे ने जिस कि सूरत से मासूमिय्यत टपक करही थी ना जाने किस
जज़बा के तहत मुसन्निफ़ को देख कर मुसक्राना शुरू करदिया, बच्चे को मासूम सी हंसी हंस्ते देख कर उसका
अपना बचपन उसकी आँखौं के सामने घूम गया, उसे अपने वतन से अब तक जिस हद तक बेगानगी का
अहसास होरहा था, वो यकलख़्त ख़तम
होगया, छोटे से बच्चे
की मासूम सी हंसी ने उसके दिल मैं अपने वतन, क़स्बे और मुहल्ले से मुहब्बत व उंस के बेपनाह
जज़बे को बेदार करदिया, उसका दिल चाहा के वो बारबार अपने मुहल्ले मैं घूमे फिरे और अपने बचपन की मासूम
यादों को ताज़ा करे, शिद्दते जज़बात
से उसका दिल भर आया, लेकिन जल्द ही
उसने अपने ऊपर क़ाबू पालिया.
मुसन्निफ़ के घर से कुछ फ़ासले पर एक पुराना सा तकिया हुअ करता था, जिस मैं गोन्दनी के आठ दस दरख़्त थे, इसी लिये उसे गोन्दनी वाला तकिया काहा जाता था, बच्चे इन दरख़्तों की छाँव मैं खेला करते थे, और गोन्दनियाँ तोड़ कर खाते थे, तकिये का साईं येनी मालिक, बुहत नेक आदमी था, वो बच्चों को गोन्दनियाँ खाने से मना नहीं करता
था, लेकिन अगर कोई
बच्चा दरख़्त की साख़ तोड़ देता तो वो नाराज़ होता, कई दुकान्दारों ने इन पेड़ों का ठेका लेने
केलिये साईं को कहा, लेकिन वो यह कह
कर ठुक्रा देता के ये बच्चों का हक़ है.
बचपन की यादों मैं गुम मुसन्निफ़ ने अपना रुख़ उस तकिये कि जानिब करलिया, अचानक उसका दिल धक से रह गया, उस तकिये की जगाह उसे एक चार दिवारी नज़र आई, जिस के दरवाज़े से एक नो दस साल का बच्चा बाहिर
आरहा था, उस ने इस बच्चे
से उस तकिये के बारे मैं दर्याफ़्त किया, तो उस ने लाइल्मी का इज़हार किया, इतने में वहाँ से एक बुज़ुर्द गुज़्रे
मुसन्निफ़ ने उन से पुछा, तो उनहों ने बताया के पन्द्रा सोला साल पहले इस तकिये के मतवल्ली के इंतेक़ाल
के बाद इस तकिये को ख़तम कर दिया गया, कियोंके जो लोग इस तकिये पर क़ाबिज़ हुए थे वो
अच्छे किर्दार के नहीं थे, वहाँ पर चर्स व भंग पी जाने लगी थी, तकिया अच्छी ख़ासी ओबाशी का अड्डा बन गया था, चुनाँचे गाँव वालों ने आपस में सुलह मशवरा करके
तकिये को ख़तम करके वहाँ एक इस्कूल क़ायम कर दिया, तकिये के बारे मैं ये जान कर मुसन्निफ़ को रंज
हुअ, वो वापिस अपने
होटल आगया, तकिये का सुन कर
उसे बेहद रंज हुअ, वहाँ उसका नाल
गड़ा हुअ था,
उसने सोचा के क़स्बे वालों को जिन हालात में तकिया ख़तम करने पड़ा मुमकिन है
के अपने इस फ़ैसले मैं वो हक़ बजानिब हौं, मगर हक़ीक़त से भी इंकार नहीं किया जासकता, वो ग़रीब लोगों का ग़मगुसार और पूरे क़स्बे की
तफ़्रीह गाह था, जिस से अब वो
महरूम होगये थे.
उस ने सोचा, के वहाँ सुभा
सुभा अल्लाह अल्लाह का विर्द हुअ कर्ता था, क़व्वाली की महफ़िलैं जमा कर्तीं थीं, पंजाबी के मशायरे बरपा हुअ कर्ते थे, गोन्दनी की शाख़ों पर बेठे हुए तीतर सुबहान
तेरी क़ुद्रत कह कर छका कर्ते थे, कसि द्रख़्त के नीचे लोग बेठे चौपड़ खेल रहे
होते थे, कहीं कोई हीर
पढ़ रहा होता था, छोटे छोटे बच्चे
गोन्दनियों से खेल रहे होते थे.
यह सब रोनक़ें इस तकिये के दम से आबाद थीं, और सब से बढ़ कर ये के इस तकिये कि जान ऊंचे और
लम्बे क़द वाला नगीना साईं, जो अपने गले मैं रंग बरंग मंकों की माला डाले
रख्ता, गर्मी हो या
सर्दी उस के जिसम पर एक ही लिबास होता, काले रंग का लिबास, कभी वो दीवानों जैसी बातैं करता तो कभी
होशमन्दों वाली.
मुसन्निफ़ होटल के कम्रे मैं लेटा अपने माज़ी की गोन्दनी वाले तकिये की इन्ही ख़ुशगवार यादों मैं गुम था, शाम हो चुकी थी, उस ने अपने कम्रे की रौशनी भी रौशन नहीं की थी, कियोंके कम्रे की नीम तारीकी उस को सकून बख़्श रही थी, गोन्दनी वाला ताकिया अपनी भरपूर गहमागहमी के साथ उस की नज़्रों मैं फिर रहा था।
पाकिस्तान से : रीरिटन बाई काशिफ़ फ़ारूक़
(16-12-2010).
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