दहशतगर्द
पहले
टीवी पर उसकी तस्वीरें दिखलाई गईं, फिर समाचार-पत्रों ने उसके बारे में लानतें-मलामतें की तो
शहर का माथा ठनका।
''अरे भईया, ग़ज़ब
हो गया! ईसा मियां का बेटा मुसुआ ससुरा आतंकवादी निकल गया।''
नगर
के सबसे पुराने धुनिया ईसा मियां का बेटा मूसा उर्फ
मुसुआ और आतंकवादी!
''ई ससुरे मियवां सब्बे आतंकबादी होवत हैं!'' बिसनाथ मिसरा ने तो बाकायदा पूरी मुस्लिम क़ौम को ही
आतंकवादी सिध्द कर दिया।
नगर
से निकलने वाले अख़बार 'त्रिशूल' के
मुखपृष्ठ का शीर्षक था 'नगर में पनपता आतंकवाद'। सम्पादक त्रिलोकचंद
ने मूसा के बहाने अपने 'विशेष संवाददाता' के
मार्फत नगर, देश और फिर
अमेरिका का प्रभुत्व स्वीकार कर रही समूची दुनिया में फैले आतंकवाद का तुरंत-फुरंत जायज़ा लिया था।
अख़बार 'त्रिशूल' का
आग्रह था कि देश भर में फैले मदरसों
की बारीकी से जांच कराई जाए। 'ज़िहाद' का ज़हर इन्हीं मदरसों से धार्मिक-शिक्षा की आड़ लेकर दी जा
रही है। इन्हें अल्पसंख्यक कह-कह कर
बहुसंख्यकों के साथ इस देश में सौतेला व्यवहार किया जा रहा है। ये लोग हमारी राजनीतिक पार्टियों को ब्लेकमेल करते
हैं।
कुछ
राजनीतिक दल स्वार्थवश इन तथाकथिक अल्पसंख्यकों
के मन में बहुसंख्यकों का डर बैठा कर उनके वोट खींच लेते हैं।
मूसा
की ख़बर सुन-गुनकर मैं भी काफ़ी अचंभित था।
मूसा
को मैं व्यक्तिगत तौर पर जानता था।
जानता
भी क्यों न, मूसा मेरा सहपाठी था और लंगोटिया भी।
ऐसा
दोस्त, जिसे खुशी-खुशी कोई अपना हमराज़ बना ले।
ऐसा
मीत, जिससे हम अपना कुछ नहीं छिपाते।
जिससे
अपने दिल की कहके हम तनाव-मुक्त हो जाते हैं।
एक
उम्र के बाद इंसान इस तरह के रिश्ते खो बैठता है।
आगे
जाकर मानवीय-सम्बंध, व्यवसायिक, औद्योगिक, राजनीतिक या कूटनीतिक सम्बंधों के नाम से पुकारे जाते हैं।
तब हरेक सम्बंध के पीछे बनते-बिगड़ते समीकरण, हित-अहित, लाभ-हानि
आदि पैमाने अहम रोल अदा करते हैं।
मुसुआ
उर्फ़ मूसा एक मुसलमान युवक था।
बचपन
में मैं मुसलमानों के बारे में यही जानता
था कि ये अछूत होते हैं। इनका 'खतना' किया जाता है। औरंगजेब जैसे मुगल बादशाहों के अत्याचारों से घबराकर या फिर लालचवश बहुतेरे
हिन्दू मुसलमान बन गए।
इतिहास
के शिक्षक उपाध्याय सर एक सनातनी अधेड़ थे। वे
मुगल-काल का इतिहास पढ़ाते समय इतना उद्वेलित हो जाते कि मुगलों की सारी ग़ल्तियों का श्रेय कक्षा में
उपस्थित इने-गिने मुसलमान लड़कों
पर डाल देते थे।
इतिहास
का पीरियड लंच-ब्रेक के बाद होता। इधर
उपाध्याय सर कक्षा में प्रवेश करते उधर स्कूल के समीप स्थित मदीना-मस्जिद से दुपहर की नमाज़ की अज़ान गूंजती।-''अल्लाहो अकबर....''
उपाध्याय
सर छात्रों को बताते'-''बच्चों सुना तुमने मस्जिद के मुल्ले की बांग! इस देश के
मुसलमान अभी तक मुगल बादशाह अकबर की बड़ाई करना
नहीं छोड़े हैं। इन लोगों के मुंह से अपने छत्रपति शिवाजी या महाराणा प्रताप की बड़ाई तुम कभी नहीं सुने होगे।
ये लोग आज भी अकबर-बाबर की
बड़ाई गाते हैं।''
जब
तक अज़ान होती रहती, उपाध्याय सर बुरा सा मुंह बनाए रहते और क्लास ठहाके से भर
जाती।
मैं
ऐसे समय उन तीन सहपाठियों को देखा करता, जिनका अपराध सिर्फ इतना रहता कि वे मुसलमान घरों में पैदा
हुए हैं।
वे
एक गुट बनाकर अलग-थलग रहा करते थे।
उस
समूह को कक्षा के दबंग लड़कों ने नाम दिया था-'केजी-ग्रुप'
'केजी' यानी कि 'कटुआ-ग्रुप'।
मूसा
उस ग्रुप में शामिल नहीं था, शायद इसीलिए मुझे प्रिय था।
वह
कक्षा के बहुसंख्यक लड़कों के साथ रहा करता था और
उन्हीं की तरह उस ग्रुप के लड़कों को 'केजी' कहा करता था।
मूसा
के पास ग़ज़ब का 'सेंस ऑफ़ ह्यूमर' था। जिस तरह एक पंजाबी बडी बेतकल्लुफ़ी के साथ अपने ही ऊपर चुटकुले और फब्तियां सुना
लिया करते हैं और बिंदास हंस
लेते हैं, कुछ ऐसी ही फ़ितरत का मालिक था मूसा।
मूसा
के अलावा दूसरे मुसलमान लड़के जब पेशाब करते तो छिप
कर करते।
जबकि
मूसा हमारे साथ टॉयलेट जाया करता। शरारती तो वह था
ही। ज़रूरत पड़ने पर सबके सामने ही पेंट की ज़िप खोलकर मूतने लगता।
जिन
दिनों हम कोर्स की किताबों में माथा खपाते थे, मूसा नई-नई शैतानियां ईजाद करने में लीन रहा करता।
मूसा
की इन्ही कारस्तानियों के कारण कक्षा के
तमाम बच्चे उसे 'मुसआ' कहकर पुकारते।
'मुसुआ' यानी कि चालाक चूहा। ऐसा चूहा जो
कुतरने को सारा घर कुतर जाए और किसी को कानों-कान ख़बर न हो। शरारत में बड़े-बड़ों के
कान कुतरता था मुसुआ।
कक्षा-शिक्षक
थे मिश्रा सर।
उनके
दो काम वह बिना उनकी आज्ञा के कर दिया करता था।
अव्वल
तो स्कूल के पीछे की झाड़ियों में घुसकर बेशरम
की हरी टहनियां तोड़ लाना और दूजा मिश्रा सर के लिए खैनी का इंतज़ाम करना।
मुझे
तो ऐसा लगता है कि मुसुआ बड़ी कम उम्र से ही खैनी
वगैरा का शौक फ़रमाया करता था।
खैनी
तो खैनी, लोगों ने उसे चपरासी रामजी द्वारा
फेंकी गई अधजली बीड़ियां सुलगाकर पीते
भी देखा था।
तब
स्कूलों को पाठशाला कहा जाता था। इन पाठशालाओं में स्कूल-यूनीफार्म, क्लास-वर्क, होमवर्क, यूनिट-टेस्ट जैसे बेहूदा चोंचले कहां थे?
बस, तिमाही, छमाही
या सालाना परीक्षा हुआ करती थीं उस
समय।
जिसमें
अच्छे-अच्छे फन्नेखां बच्चे फेल हो जाया करते
थे।
अभिभावकगण
शिक्षकों को लाइसेंस दे देते थे कि वे बच्चों
को सुधारने के लिए चाहें तो पीट-पीट कर अधमरा कर दें। मार के डर से भूत भी भागते हैं, हम तो
फिर बच्चे ही ठहरे। तिमाही-छमाही परीक्षा में फेल होने और पिट-पिट कर बेइज्ज़त होने के बाद हमें अक्ल आ जाती और थक-हार कर हमें निर्णय
लेना ही पड़ता कि अब पढ़ने और रटने
के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा। नतीजतन सालाना परीक्षा में हम सम्मानजनक नम्बरों से पास हो जाया करते थे।
तब
अभिभावकों को अपने बच्चों से नब्बे-निन्नानबे प्रतिशत
अंक की आशा न होती थी।
मुसुआ
का दिमाग तेज़ था।
साल
भर वह तिकड़में करता लेकिन परीक्षा समीप आने पर
इतना ज़रूर पढ़ लेता कि गांधी-डिवीज़न से पास हो जाता।
यदि
वह पढ़ने में ध्यान देता तो निस्संदेह अच्छे नम्बर
लाता।
ऽ
मुसुआ
आतंकवादी बन गया।
ये
एक ऐसा समाचार था जिसने मेरे दिमाग के जोड़-जोड़
हिलाकर रख दिए थे।
इतना मिलनसार, हरदिल-अजीज़, सामाजिक लड़का मूसा किसी आतंकवादी संगठन के लिए काम क्यों करने लगा?
वह
मेरे घर आया करता था।
एक
घटना ऐसी घटी कि उसके बाद उसने मेरे घर चाय-नाश्ता
करना छोड़ दिया था।
हुआ
ये कि मेरी मां एक रूढ़िवादी, पारम्परिक धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। वह क़तई नहीं
चाहती थीं कि कोई विधर्मी या कि अछूत-चमारों के
संग उनके बच्चे दोस्ती करें। उनके साथ उठे-बैठें। उन्हें अपने घर बुलाएं या उनके घरों में जाएं।
पिताजी
के दफ्तरी सहयोगियों के लिए घर में अलग से
कुछ बर्तन थे। ये कप-प्लेट, गिलास और तश्तरियां अलग रखी जाती
थीं। उन्हें मां न तो छूती थीं, न
मांजती-धोती थीं। जूठे बर्तन गंधाते पड़े रहते जब तब कि नौकरानी आकर उन्हें न उठाती।
एक
बार मुसुआ मेरे घर आया तो मेरे बुलाने पर अंदर चला
आया।
मां
ने चने की घुघनी बनाई हुई थी।
घुघनी
मुझे बहुत पसंद थी।
मुझे
मुसुआ के साथ तत्काल खेल के मैदान जाना था।
इसलिए
मैंने कहा कि नाश्ता करके चलते हैं।
मां
ने मुझसे मुसुआ की ज़ात पूछी।
मैंने
बताया कि मिंया बच्चा है मुसुआ।
मां
का दिमाग खराब हो गया।
क्या करतीं, लड़के का दोस्त ही ठहरा।
उन्होंने
मूसा के लिए चीनी मिट्टी की तश्तरी में घुघनी
भिजवाई और मेरे लिए स्टील के प्लेट में।
मूसा
के लिए चीनी मिट्टी के कप में चाय थी और मेरे
लिए स्टील के कप में।
मूसा
के लिए कांच के तनिक तड़के गिलास में पानी दिया और
मुझे स्टील के गिलास में।
मूसा
की पैनी निगाहें इस भिन्नता को भांप गईं।
उसने
बहाना किया कि उसका पेट ठीक नहीं है।
वह
कुछ भी न लेगा।
फिर
जब हम घर से बाहर निकल रहे थे तो सामने गली में
खिड़की के नीचे के घूरे पर कुत्तों के सामने घुघनी की तश्तरी फेंकी गई।
कुत्ते
आपस में लड़ते हुए घुघनी खाने के लिए झपट पड़े।
मूसा
ने बहुत बुरा महसूस किया था।
उसने
मुझसे साफ कह दिया कि यदि वह किसी आपात दशा में
मेरे घर आता भी है तो कुछ खाएगा या पिएगा नहीं। यदि मेरी बहुत ही इच्छा हो कुछ उसे खिलाया जाए तो होटल में
क्या नहीं मिलता है।
वैसे
मैं जब भी मुसुआ के घर जाता तो उसकी अम्मी के हाथों
बनी फिरनी, सेवईं, हलुआ आदि बड़े प्यार से खाया करता
था।
मूसा
मुझे बहुत मानता था।
मेरे
लिए वह जान दिया करता था।
वह आतंकवादी
कैसे बन गया, मेरी समझ में नहीं आ रहा था।
वह
एक हंसमुख इंसान था, एकदम जिन्दादिल।
कभी
दुखी भी होता तो सिर्फ इसी बात पर कि लोग उसे अपने
जैसा एक आम इंसान या शहरी क्यों स्वीकार नहीं करते? उसे देखकर लोग क्यों
हिन्दू-मुसलमान जैसी बातें करने लगते हैं।
मूसा
यानी मुसुआ पढ़ाई का दुश्मन था, लेकिन नगर-मुहल्ले की सांस्कृतिक-धार्मिक गतिविधियों में
बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया करता था।
सरस्वती-पूजा, दुर्गा-पूजा, गणेश-पूजा, तुलसी-जयंती, होलिका-दहन
हो या फिर दशहरा में रावण-दहन के कार्यक्रम।
मुहल्ले
के बच्चों ने एक संस्था बनाई थी-''बाल-क्लब''
बाल-क्लब
का सबसे सक्रिय सदस्य हुआ करता था मूसा।
कम
से कम पैसे और रद्दी की चीज़ों से वह ऐसी
मंच-सज्जा करता कि हमारे छोटे से गणेश भगवान ऐसे दिखते ज्यों अपने नन्हे से चूहे पर सवार होकर वह हिमालय की
चोटियों के बीच से रास्ता बनाते
हुए चले आ रहे हों।
रूई
और लकड़ी के बुरादे से वह हिमालय का अद्भुत सीन बना
दिया करता था।
दशहरे
में रावण के पुतले भी उसी के दिमाग से बनाए
जाते।
एक
बार रावण को हम लोगों ने शोले के गब्बर-सिंग जैसा
बना दिया था।
मुहल्ले
के जोशी भइया जो कि एक बड़े अखबार के संवाददाता
थे, उन्होंने हमारे गब्बर-सिंग जैसे रावण के बारे में उस समय
समाचार प्रकाशित कराया था।
जोशी
भइया आरएसएस के सक्रिय कार्यकर्ता थे।
मुसुआ
की सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भागीदारी के कारण
जोशी भइया उसे पसंद करते।
मुसुआ
भी उनका बहुत सम्मान किया करता था।
देखते-देखते
वह जोशी भइया का मुरीद बन गया था।
एक
दिन उसने बताया कि मैं भी राम-मंदिर प्रागण में लगने
वाली आरएसएस की शाखा में आया करूं। वहां जोशी भइया कई मनोरंजक खेल खिलाते हैं।
मेरा
घर आर्य-समाजी था और मेरे बड़े भइया जो कि जोशी भइया
के सहपाठी थे, वह वामपंथी विचारधारा के थे।
कामरेड
प्रदीप और जोशी भइया में अक्सर घंटों बहसें हुआ
करतीं।
जोशी
भइया मेरे भाई कामरेड प्रदीप को 'दगाबाज़ कम्युनिस्ट' कहा
करते। जिन लोगों ने भारत-चीन युध्द के समय देश के साथ
धोखा किया था। मैं भी जोशी भइया के इस कथन का समर्थक था कि कम्यूनिस्ट देशद्रोही होते हैं।
''बस 'ऐतिहासिक-भूलें' किया करते हैं कामरेड लोग। कोई समस्या आई नहीं कि लगेंगे
चीनी और रूसी किताबों के पन्ने पलटने कि ऐसी दशा में लेनिन ने क्या कहा था, माओ ने क्या कहा, स्तालिन
ने क्या किया और फिर गर्बाचोव ने तो इन्हें डुबो ही दिया!''
जोशी
भइया देश-प्रेम और हिन्दू-जागरण के पक्षधर थ। मूसा
उनसे बहुत प्रभावित था। वह उनके प्रभाव में आकर तुकबंदियां भी करने लगा था। जिसमें देश-प्रेम की भावना रहती
और कश्मीर की रक्षा के लिए
खून बहाने की बातें हुआ करती थीं। जब वह पाकिस्तानियों को भून कर कच्चा चबा जाने वाली कविता पढ़ता तो जोशी भइया गद-गद हो जाते और उठकर
मुसुआ को गले लगा लेते थे।
मूसा
ने इन तुकबंदियों के कारण स्वयं को कवि मान लिया था
और मूसा भारती के नाम से संघ की पत्रिकाओं में उसकी कविताएं छपा करती थीं।
आरएसएस
की शाखा में मूसा को राष्ट्रभक्त नागरिक का
दरजा मिला हुआ था।
शाखा
में देश के तमाम मुसलमान युवकों से इसी तरह की
राष्ट्रभक्ति की आशा की जाती थी। घर्म-निरपेक्षता का विरोध करते हुए मुसलमानों से ये आशा की जाती कि वे सभी संघ
के साथ ष्जुड़कर राष्ट्रवादी हो जाएं और मुख्य-धारा
में शामिल हो जाएं।
लेकिन
मूसा अधिक दिनों तक जोशी भईया के सम्मोहन में फंसा
नहीं रह पाया।
ये
मण्डल-कमण्डल की राजनीति के दिन थे।
पूरे
देश में अजीब माहौल बन गया था।
गरीबी, भूख, बेकारी, अपराध, भ्रष्टाचार आदि ज्वलंत मुद्दे राष्ट्र्रीय-पटल से ग़ायब हो चुके थे। अब लोगों को सिर्फ
मंदिर चाहिए था या फिर मस्जिद...
मूसा
अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर बनने के पक्ष में
था लेकिन बाबरी मस्जिद ढहाकर नहीं।
पूरा
उत्तर-भारत में 'क़सम राम की खाएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे!' 'बच्चा-बच्चा राम का, जन्मभूमि
के काम का!' और 'जयश्रीराम!' जैसे गगन-भेदी नारे गूंज रहे थे।
ऐसे
ही छ: दिसम्बर बानबे के दिन बाबरी-मस्जिद ढहा दी
गई।
प्रजातंत्र
का मुखिया दुखी मुद्रा में टेसुए बहाता रहा-''मेरे साथ धोखा हुआ! मुझे राज्य-सरकार ने अंधेरे में रखा!''
बाबरी-मस्जिद
क्या ढही, मूसा उदास रहने लगा था।
देश
एक बार फिर दंगों के चपेट में आ गया।
मुम्बई
में दाउद के गुर्गों ने धमाका किया।
मुझे
याद है कि सात दिस्म्बर बानबे के दिन, मूसा मुझे साथ लेकर जोशी भइया के आवास पर ले गया।
जोशी
भइया शान्त मुद्रा में बैठे थे। उनके चेहरे पर
काम पूरा होने का संतोष था और थी एक अंतहीन लड़ाई के एक छोटे से पड़ाव के आगे की रणनीति तय करती उत्तेजना...
जोशी
भइया के सामने हम काफी देर चुपचाप बैठे रहे।
मुसुआ
के चेहरे पर आक्रोशजन्य तिलमिलाहट देख जोशी
भइया ने चुप्पी तोड़ी-''मेरे पास पक्की ख़बर है कि संघ के
लोगों को, यहां तक कि बड़े लीडरों को भी इस बात की जानकारी नहीं थी कि
ढांचा गिरा दिया जाएगा।''
मूसा
खामोश बुत बना बैठा रहा।
फिर
वह उठ खड़ा हुआ।
मुझसे कहा-''चलो!''
हम
लक्खी की चाय गुमटी में आ बैठे।
बस-स्टेंड
में लक्खी की चाय-गुमटी थी।
लक्खी
हमारा सहपाठी था, लेकिन बाप के असमय मर जाने के बाद वह अपनी पढ़ाई ज़ारी न रख
पाया और पैतृक-दुकान सम्भालने लगा।
लक्खी
चाय बना रहा था।
मूसा
उसे चाय बनाते बुत बना ताक रहा था।
उसके
बाद मूसा में अजब परिवर्तन हुआ।
हम
उस समय बीए पूर्व के छात्र थे।
अब
मूसा मेरे बड़े भाई कामरेड प्रदीप की बैठकी अटेंड करने
लगा था।
प्रदीप
भाई से वह देश-दुनिया की राजनीति और अन्य
मुद्दों पर घण्टों बतियाता रहता।
जब
वह मेरे साथ टहलता तो कई तरह के प्रश्नों से जूझता
रहता-''यार भाई...!''
'यार भाई!' मूसा
का तकिया-कलाम था।
''माना कि वे लोग फासीवादी हैं, विध्वंसक हैं। वे अपनी मनमानी कर लिया करते हैं। ऐसे खतरनाक
समय में हमारे ये वामपंथी कामरेड भाई कोई 'एक्शन' न करके सिर्फ बयानबाजी करते हैं। ये कामरेड 'ग्रास-रूट लेवल' पर
पीड़ितों की मदद न कर सिर्फ विरोध-प्रदर्शन का कौन सा तरीका अख्तियार करते हैं, मेरी कुछ समझ में नहीं आता। किसी घटना के बारे में अपनी राय
प्रकट करने से पूर्व ये कामरेड एक-दो दिन तक बंद कमरे में गहन-मंत्रण्ाा करते हैं।
फिर जब स्थिति नियंत्रण से बाहर हो जाती है, तब
उनका बयान आता है कि ये एक दुर्भाग्यपूर्ण बात है और पार्टी इसकी निंदा करती है।
ऐसे में तुम इन लोगाें से क्या उम्मीद करोगे? इस
देश के मुसलमान आखिर जाएं तो जाएं कहां?''
मैं
उसे समझाता कि तुम नाहक अपना दिमाग खराब किए रहते हो।
ये
सब सत्ता के गलियारों की राजनीति है।
सारी
दुनिया देखते-देखते अमरीका की गुलाम हुई
जा रही है और हमारा देश अभी भी वही हिन्दू-मुस्लिम समस्या से दो-चार है।
लेकिन
मूसा मेरी बात से सहमत न होता।
वह
चीख पड़ता-''यार भाई! तेरे साथ ये प्राब्लम नहीं है कि तुझे खुद को
देश-भक्त सिध्द करने को कोई नहीं कहता। हम
मुसलमानों को इस देश में हमेशा से शक की निगाह से देखा जाता है।
हमें
पाकिस्तान-परस्त समझा जाता है। हमसे हमेशा
देश-भक्ति का सबूत मांगा जाता है। तुम नहीं समझोगे हमारी व्यथा!''
जल्द
ही मूसा का कामरेड प्रदीप से और भारतीय
वामपंथी राजनीति से मोहभंग हो गया।
ऽ
हम
दोनों ने साथ-साथ बीए किया।
उसका
अंक-प्रतिशत काफी कम था। बस यूं समझो कि
गांधी-डिवीज़न से पास हुआ था। मूसा काफी आत्मकेंद्रित हो गया था और उसने अपनी पढ़ाई को विराम देकर अपने अब्बू की दुकान
सम्भालने का निर्णय लिया था।
मेरे
पिता ने मुझे जबलपुर पीएससी की कोचिंग करने के
लिए भेज दिया और फिर मैं कैरियर के लिए यूं दीवाना बना कि मुझे दीन-दुनिया का होश न रहा।
इस
बीच जब भी मैं घर आता तो घूमते-टहलते ईसा-मिंया की
रजाई-गद्दे की दुकान पर आकर बैठता।
हमारे
गृह-नगर में उन दिनों तहसील से जिला बनाने की
राजनीति गर्माई हुई थी।
नित-नई आशंकाओं, अफ़वाहों, बदलते राजनीतिक समीकरण से भरपूर था परिवेश!
आसपास
की कोयला खदानों के कारण ये एक व्यवसायिक कस्बा है।
धन-धान्य से परिपूर्ण। वर्तमान आवश्यकताओं की नवीनतम वस्तुएं यहां बाज़ार में उपलब्ध हैं।
इसी
तरह देश के प्रमुख विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करने
वाली तमाम राजनीतिक पार्टियों की शाखाएं इस नगर में हैं। गांधी-नेहरू, इंदिरा-राजीव, सोनिया-राहुल वाली कांग्रेस का यहां वर्चस्व है। पुराने वकीलों और कुछ बुध्दिजीवियों में
लोहियावाद के वायरस नज़र आते
हैं। असंतुष्ट कांग्रेसी गुट राकांपा में जाता दिखता है। दलितों और मुस्लिमों की छोटी जातियों के बीच कांशी-मायावती ब्राण्ड बसपा, उत्तर-प्रदेश से इधर आ बसे यादवों और पटेलों के बीच मुलायम
वाली सपा, बहुसंख्यक नौजवानों में बाला साहेब वाली शिवसेना, कटियार
वाली बजरंग-दल, सिंघल वाली विहिप और बनिया-बामनों
के बीच अडवाणी-अटल की बीजेपी जैसी पार्टियाें
का अस्तित्व साफ दिखलाई देता है।
पहले-पहल
इस नगर में एक ही मंदिर था, देवी-मां का मंदिर। फिर जब यहां मारवाड़ी आकर बसे तब नगर के
मध्य में भव्य 'राम-मंदिर' बना, जिसके प्रांगण में सुबह-शाम शाखाएं लगने लगीं।
पहले
यहां एक छोटे कमरे में मस्जिद बनी, फिर देखते-देखते इस नगर में तीन मस्जिदें, दो ईदगाह, एक कब्रस्तान, एक
मज़ार बन गई।
आज
नगर में तीन चर्च, दो गुरूद्वारे, सैकड़ों
मंदिर, दो सिनेमा-हॉल, पांच पेट्रोल-पम्प, आठ-दस
नर्सिंग-होम, दर्जनों दवा की दुकानें हैं।
पहले
जहां सिर्फ एक जनपद पाठशाला थी, अब उसी
नगर में कई सरकारी स्कूल, अंग्रेजी माध्यम की कई निजी शिक्षा-दुकानें, अंजुमन
स्कूल, मिशनरी स्कूल और दो सरस्वती शिक्षा-मंदिर के स्कूल खचाखच चल
रहे हैं।
आर्थिक
उन्नति के साथ धर्म, आस्था, विचार, आदर्श, सम्वेदना और शिक्षा का व्यवसायीकरण
किस तेजी से होता है, इसकी प्रत्यक्ष मिसाल यहां देखी जा सकती है।
ऽ
मुसुआ
अक्सर अपने रजाई-गद्दे वाली दुकान में मिल
जाता।
मुसुआ
ने कई जगह नौकरी के प्रयास किए।
चयन-परीक्षाओं
में वह पास न हो पाता। नौकरी न लगे तो झट
लोग कह देते हैं कि भइया बिरादरीवाद, प्रदेशवाद, जातिवाद हो या कि टेंट में पैसा...नौकरी पाना सबके बूते की बात नहीं।
ईसा मिंया
कहते हैं कि 'मीम' को नौकरी कहां?
मुल्क
में मुसलमानों से भेद-भाव किया जाता है। तभी तो
अपना मुसुआ बेकार है।
मुसुआ
अपने अब्बा की बात हंस कर टाल जाता। कहता कि
नौकरी से कहीं अच्छा है कि अपने अब्बा की दुकान में मालिक बन कर बैठा जाए।
फिर
मुसुआ दुकान सम्भालते-सम्भालते पक्का कारोबारी
आदमी बन गया था।
छठे-छमाहे
मैं नगर आता और मुसुआ में हो रही तब्दीलियां
देखा करता।
पहले
वह नमाज़ें नियम से न पढ़ता था। कभी-कभी तो जुमा की
नमाज़ भी उससे छूट जाती थी। लेकिन इधर पांच टाईम नमाज़ पाबंदी से अदा करने लगा था।
एक
बार आया तो मैंने देखा कि गद्दी पर मुसुआ की जगह
बिना मूंछ के लम्बी काली दाढ़ी वाला कोई युवक बैठा हुआ है। जिसके सिर पर दुपल्ली टोपी खपकी हुई है। मैं उससे
पूछता कि भाई यहां तो ईसा मियां
की दुकान हुआ करती थी।
लेकिन
उस दाढ़ीदार युवक ने जब मुझे देख मुस्कुराकर बैठने
का इशारा किया तो मैंने पहचाना कि ये तो अपना मूसा है। सिर पर गोल दुपल्ली टोपी, घुटनों तक लम्बी कमीज़ और टेहनुओं के ऊपर उठा पैजामा उसकी
पहचान बन गए।
एकदम
तालिबानी दिखने लगा था स्साला।
वह
अब मुझसे बातें करता तो अचानक आक्रामक हो जाता।
मुझे
हिन्दू बहुसंख्यक बिरादरी का नुमाइन्दा मानकर मुझपर
जुबानी हमले किया करता।
कहता-''बाबरी मस्जिद गिराने के बाद नगर के दुकानदार और ग्राहकों की
मानसिकता में फांक दिखलाई देने लगी है। ऐसे
समय में समझदार-सयाने जाने क्यों चुप हैं? अब
हिन्दू ग्राहक मुसलमान दुकानों से सामान खरीदने में परहेज़ करता है। तुम्हें मालूम कि पहले गोश्त की दुकानें सिर्फ
मुसलमानों की थीं। लेकिन अब उन लोगों
ने हमारी दुकानों से गोश्त खरीदना बंद कर दिया है। समझे यार भाई! गली के दूसरी तरफ उनके आदमियों ने 'झटके' वाली गोश्त की दुकानें खोल ली हैं।''
मैंने
उसे समझाया कि ऐसा इसलिए नहीं है कि मुसलमानों को
सताना है। नगर की आबादी बढ़ गई है। गोश्त की दुकानें कम थीं, इसलिए
ग्राहकों को दिक्कत होती थी। ज्यादा दुकानें रहेंगी तो नागरिकों को सुविधा होती है।''
मूसा
अपनी बात पर अड़ा रहा-''मुसलमान ग्राहक को झक मार कर हिन्दुओं की दुकान जाना पड़ता
है। क्योंकि यार भाई! सोना-चांदी, मिठाईयां, किराना, कपड़ा, दवाई और मिठाईयों की दुकानें तो सिर्फ उनके ही पास है। हमारे पास
क्या है? बस, यही दर्जी, धुनिया, पेंटर, कारपेंटर, कसाई, मोटर-गाड़ी मरम्मत की दुकानें। जिनमें हाड़-तोड़ मेहनत के
अलावा आमदनी कितनी कम होती है।''
मुझे
लगा कि मूसा का जैसे कोई 'ब्रेन-वाश' हुआ
है।
''तुम सिक्के का एक ही पहलू क्यों देखते हो मूसा। क्या देश के
तमाम हिन्दुओं को सरकार ने नौकरी दे रखी है? क्या
भूख, बीमारी, बेकारी
से हिन्दू परेशान नहीं है?''
वह
मेरी सुनता कहां है, बस अपनी ही पेले रहता है-''भूख, गरीबी, बीमारी से यदि मुसलमान मरते तो मुझे फ़िक्र न होती, लेकिन
इन दंगों मे प्रशासन-शासन द्वारा सुनियोजित
तरीके से मुसलमानों को टारगेट बनाकर तबाह करने पर तुम्हारी क्या राय है?''
मैं
बताता कि मुसलमानों की दुर्दशा का कारण
अशिक्षा, निर्धनता और शाह-खर्ची की आदत। यदि एक मुसलमान पचास रूपए
प्रतिदिन भी कमाता है तो चाहता है कि उसकी रसोई
में गोश्त या अंडा ज़रूर बने। वह अपनी रसोई की तुलना नवाबों-शहंशाहों के बावर्चीखाने से करता है। भले ही
उसके बच्चे नंग-धड़ंग बिना कपड़े-लत्ते
के घूमे। उनके बच्चे किताब, स्कूल-फीस और यूनीफार्म के अभाव में पढ़-लिख नहीं पाते हैं और कम उम्र में
ही मिस्त्रियाें, दर्जियों, पेंटरों के
शागिर्द बन जाते हैं। लड़कियां कम उम्र में ब्याह दिए जाने के कारण रक्ताल्पता, टीवी
और अन्य असाध्य रोगों पीड़ित हो जाती हैं। हारी-बीमारी की दशा में मेडिकल जांच न कराकर मिंया भाई
झाड़-फूंक, गंडा-तावीज़, मन्नत-मनौतियों
के चक्कर में बर्बाद हो जाता है।
मेरे
तर्कों को सुनकर मुसुआ और तिलमिला जाता और मुझे घोर
दक्षिणपंथी करार देता।
मैं
दो-चार दिनों के लिए घर आता था सो मुसुआ से ज्यादा
माथापच्ची न कर, उसकी हां में हां मिलाकर निकल लेता
था।
गोधरा-काण्ड
के बाद से तो वह विक्षिप्त होने की हद तक
आक्रामक हो गया था।
सुनने
में आया कि उसके एक खालू, जो कि गुजरात की एक बेकरी में काम करते थे, 'प्रतिक्रिया' के
नाम पर उन्हें जिन्दा जला दिया गया
था।
मैं
उसके पास अफ़सोस प्रकट करने गया था, क्योंकि पिछले माह ईसा मिंया की मौत की ख़बर स्थानीय समाचार
पत्र में देखी थी। ईसा मिंया एक गुणवान, मिलनसार और वतनपरस्त इंसान थे।
उसने
जब गोधरा के बाद के गुजरात में जो हिंसा हुई उसके
लिए देश के तमाम हिन्दुओं को जिम्मेदार ठहराया तो मुझसे रहा न गया।
मैंने
अपना पक्ष रखा तो वह दर्ुव्यवहार की सीमा पार
करने लगा।
मुझे
क्या पता था कि उसके अन्दर पनपने वाला ये असंतोष
एक दिन ज्वालामुखी बन जाएगा।
ऽ
फिर
जब मैं अपने गृह-नगर आया तो आदतन मूसा की दुकान
की तरफ चला गया।
वहां
पता चला कि मूसा अपने अब्बा ईसा मिंया की दुकान का
सारा सामान एक दूसरे धुनिया को बेचकर नगर छोड़कर कहीं चला गया है।
मैंने
अपने बड़े भाई कामरेड प्रदीप से जब उसके बारे में
पूछा तो उन्होंने बताया कि गुजरात-काण्ड के बाद मूसा बदल गया था। उसके अंदर तर्क-शक्ति और धैर्य थोड़ भी शेष
नहीं बचा था।
एक
दिन वह घर आकर कामरेड प्रदीप से भी झगड़ पड़ा था कि
कैसे विश्वास करूं कि आप भी दंगाईयों के साथ नहीं थे? क्या
गुजरात में धर्म-निरपेक्ष, गैर-साम्प्रदायिक आदमी एक भी नहीं
बचा? कहां गए आपके
कैडर के लोग जो गुजरात में फुल-टाईमर हैं और जो चाहते तो क्या स्थिति को थोड़ा भी सम्भाल नहीं पाते?
उसके
बाद मैं मूसा उर्फ मुसुआ को भूल ही गया था कि
अचानक एक दिन....
ऽ
मेरे
सामने पड़ा था 'त्रिशूल' अख़बार का मुखपृष्ठ।
कव्हर-स्टोरी
के साथ मोहम्मद मूसा उर्फ मुसुआ की
तस्वीर।
मुझे
लगा कि साथ ही कहीं सम्पादक का खण्डन न छपा हो कि
अख़बार में जो तस्वीर छपी है, वह ग़लत छप गई है।
लेकिन
मेरी सोच सच न हो सकी।
वह
तस्वीर मेरे बाल-सखा मुसुआ की ही थी।
क्या
बीत रही होगी उसके मरहूम अब्बा ईसा मिंया की रूह
पर।
मीलाद-शरीफ़
की महफ़िलों की शान हुआ करते थे ईसा मिंया।
ईसा
मिंया पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद की शान में 'नातिया-कलाम' बहुत
मीठी आवाज़ और तरन्नुम के साथ पेश
करते कि सुनने वालों का दिल बाग़-बाग़ हो जाता था।
''बतहा के जाने वाले मेरा सलाम ले जा
दरबारे-मुस्तफ़ा
में मेरा पयाम ले जा''
हां, जब वह
भावनाओं में बहकर सुर की समंदर में गोते लगा रहे होते तो उनका चेहरा ज़रूर कुछ विकृत सा हो जाता था।
कांग्रसी
ज़माने मे स्वतंत्रता-दिवस समारोड में
विजय-स्तम्भ चौक पर झण्डा-रोहण का कार्यक्रम होता था। विजय-स्तम्भ चौक में, स्कूलों
के बच्चे, प्रभात-फेरी के बाद आ जाते और नगर के गणमान्य नागरिकों की उपस्थिति में वहां झण्डारोहण
की कार्यक्रम सम्पन्न होता।
जाने
कब से उस कार्यक्रम में ईसा मिंया के
देश-भक्ति पूर्ण गीत ज़रूर रखा जाता।
ईसा
मिंया का प्रिय गीत था-''वतर की राह में वतन के नौजवां शहीद हो।!''
जब
ईसा मिंया की दर्द से लबरेज़ आवाज़ फ़िजां में गूंजती तो
सुनने वाले देश-प्रेम की भावना से तड़प उठते-
''पहाड़ तक भी
कांपने लगे तेरे जुनून से
तू
इंक़लाब ज़िन्दाबाद लिख दे अपने खून से
चमन
के वास्ते चमन के बागबां श्शहीद हो
वतन
की राह में वतन के नौजवां शहीद हो।''
ईसा
मिंया इस अवसर पर अपनी बेतरतीब खिचड़ी दाढ़ी को तराश
कर आया करते।
बिना
मूंछ और मिंया-कट दाढ़ी में ईसा मिंया का चेहरा बड़ा
मज़ाकिया नज़र आता।
हम
तब बच्चे ही तो थे।
गीत
के शब्दों को अभिनय के साथ अर्थ का जामा पहनाने
का प्रयास करते ईसा मिंया का चेहरा विकृत हुआ नहीं कि हम अकारण पेट पकड़कर हंसने लगते थे।
कभी-कभी
मुसुआ का मूड ठीक दिखता तो भोला, ईसा मिंया के चेहरे की नक़ल करते हुए भिखारियों के से अंदाज़
में हाथ फैलाकर एक गीत गाया करता-''औलाद वालों फूलो-फलो
भूखे
ग़रीब की ये ही दुआ है...!''
पूरी
कक्षा उस समय हंस पड़ती।
ऐसे
समय मुसुआ, भोला को मां-बहिन की गालियां बकता उसे दौड़ा-दौड़ाकर पीटा करता।
फिर
जब सरकारें बदलीं। गांधी टोपी की जगह भगवा गमछे हवा
में लहराए तब ईसा मिंया से 'वन्दे-मातरम' गायन की फ़रमाईश की गई।
ईसा
मिंया 'वंदे-मातरम' गा
तो लेते थे, लेकिन उनका हिन्दी उच्चारण उतना दुरूस्त न था। सो उनकी जगह
किशन भैयाजी ने ले ली जो कि रामलीला में भजन
गाते थे।
ऐसे देश-भक्त, गंगा-जमुनी
संस्कृति के वाहक ईसा मिंया का नूरे-नज़र, लख्ते-जिगर, एक दहशतगर्द कैसे बना...
ये
एक रिसर्च का विषय है।
मेरे
सामने त्रिशूल अख़बार है, जिसमें मूसा आतंकवादी की तस्वीर है।
घनी
काली दाढ़ी के बीच उसका चेहरा तालिबानियों की याद
दिला रहा है।
मेरा
लंगोटिया यार मूसा एक दहशतगर्द कैसे बना, मैं क्या कभी जान पाऊंगा?
अनवर सुहैल
जुलाई 1, 2007.
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