17 April 2024

मै पत्थर का लड़का - मालिक व मुसन्नफ़: काशिफ़ फ़ारूक़| लाहौर पाकिस्तान से| 14-10-2019

 




मै पत्थर का लड़का

 हम जिंस लड़कौं के लिये ख़ास कहानी


अल्लह की ज़मीन बुहत बड़ी है| यह मुझे बुहत बअ़द मैं पता चला| इतना बअ़द कह मैं ना वापिस जा सक्ता हूँ और आगे जाने की क़ुद्रत रखता हूँ| अगर कुछ पहले ऐह़सास होजाता तो मैं अपने लिये कोई एक दीवार ए ग्रिया उठा रखता| सारी बातैं सारे दुख उसी से कहता जाता| मैं बुहत छोटा था सिरफ़ सोलह का जब पहली बार सुना कह मैं बुहत बहाद्दुर हूँ| बात बे बात नहीं रोता| कभी चोट भी लग जाए तो बस आँसू गिर्ते रहते हैँ वावेला नहीं कर्ता शोर नहीं कर्ता| रोरो कर चीख़ चीख़ कर आसमान सर पर नहीं उठाता| बहाद्दूर होने के इसी धोके मैं मैं ने पच्चीस साल गुज़ार दिये| मुझे मह़सूस होने लगा कह मैं वाक़ई बुहत बहाद्दुर लड़का हूँ| इतना बहाद्दुर कह रोना मुझे अपनी तौहीन लगने लगा| ज़िन्दगी मैं ऐसे बुहत से मक़ाम आए जहाँ मुझे बुहत रोना आया मगर मैं रोया नहीं| मुझे मैह़सूस होने लगा कह नह रोना मेरी बुहत सी नफ़स्याती बिमारियौं की जड़ बन ग्या था| एक मुद्दत तक नह रोने से मैं बुहत गुम सुम सा होग्या था| इतना गुम सुम कह बुहत से लोगौं को यह गुमान होता था कह मेरा शायद दिमाग़ी गवाज़ुन द्रुस्त नहीं| एक वक़्त ऐसा था कह कोई मेरी तरफ़ ग़ौर से देखता या कोई भूला भट्का जुमलह मेरे ह़ाल अह़वाल के लिये पूछ लिया जाता तो मुझे मैह़सूस होता कह अब मुझे रो लेना चाहिये कह मुझे थोड़ा सा क़रार आजाए| इसी कशमकश मैं ज़िन्दगी की ज़्यादती कुछ यूँ भी रही कह उमर के पिछले पच्चीस साल जिस बात को मेरी ताक़त समझ कर मेरे तआ़रुफ़ को दर्जह ह़ासिल था कह मैं रोता नहीं मेरे ख़ास दिस्त के साथ ज़िन्दगी के अगले पच्चीस साल वुही ताक़त मेरी कमज़ोरी ओर शायद गुनहगार होने की ह़द तक तअ़नह बन गई|

 

ऐसा नहीं कह मुझे रोना नहीं आता था| आता था| बुहत रोना आता था| बात बे बात आता था| हुआ यूँ कह एक दो बार अगर आँसू झलक ही पड़े और मैं ने ज़बर्दस्ती थोंपी गई इस मज़बूत जज़बाती बादशाह के ओ़हदे से उतर्ना भी चाहा तो मेरे होने वाले लड़के दोस्त ने मुझ से काहा "लड़का और मगर मछ के आँसूऔं मैं कोई ख़ास फरक़ उसे मह़सूस नहीं होता"| तो जो बस ज़रा सा नारमल होने की कोशिश मैं था वापस उसी जज़बाती ताबूत मैं बन्द हो ग्या| अगर सिरफ़ रोना ही मेरा मसअलह होता तो बात इतनी ख़राब नह होती| मैं नह रोने कि कोशिश बलकह जिद्दोजैहद मैं इतना मस्रूफ़ हूआ कह हंसना और मुसकुराना भी भूल ग्या| नह रोना मेरे ऐसाब पर इस्तरह़ सवार था कह मैं बाक़ी जज़बात से लातअ़ल्लुक़ हो कर ज़ार व क़तार रोने की ख़वाहिश को दबाता चला ग्या| इस ख़वाहिश को मैं ने फिर इतना दबाया इतना दबाया कह ज़िन्दगी की जिद्दोजैहद आधे से ज़्यादह इसी मैं सर्फ़ होगई| मेरा नह रोना मेरी ताक़त से मेरी कमज़ोरी मैं ढल ग्या| फिर यह मेरी ज़ात का ह़िस्सा बन ग्या| जब मेरे लड़के दोस्त ने मुझे यतीम ख़ाने से एक बच्चह मुझे सौंपा कह मैं उस की परवरिश करूँ तो उस बच्चे के मेरे घर आते ही मैं ने उसे खो द्यिा| वह बीमारी मैं मुबतला हो कर फ़ौत हो ग्या| तब मेरे इसी लड़के दोस्त ने मुझे पहली बार पत्थर का लड़का होने का ऐज़ाज़ द्यिा|

 

इस दोस्त के मुताबिक़ जिस के साथ मैं ने ज़िन्दगी गुज़ार्ने का वअ़दह किया था जो मेरा लड़का जीवन साथी था दुन्या मैं कोई ऐसा लड़का हो ही नहीं सक्ता कह जिस के घर मैं आने वाला यतीम ख़ाने का बच्चह आते ही बीमारी के बाइस मर जाय मुझ से छिन जाय और उस की आँख से एक आँसू नह टपके| पता नहीं उस को मेरी सुर्ख़ और सूझी हूई आँखैं दिखाई कियूँ नहीं देतीं| या जान बूझ कर वह ऐसा कैहता था| अब किसी को क्या पतह कह मेरे इद बच्चे के साथ मेरे अन्गर का एक ह़िस्सा मर ग्या था| कितने दिन मैं मुकम्मल तौर पर अपने ह़वासौं मैं नहीं आसका था| क्या कभी माँ बाप को भी गवाहिईयाँ देनी पड़ती हैं? कह जैसे अगर मैं इस बच्चे के बाप के रुतबे का मुतबादिल था| अपने बाहाद्दुर होने के धोके मैं और किसी के सामने नह रोने की ख़वाहिश और कोशिश ऐसी शदीद और गड मड होगई कह मैं अपने हौंटौं को सख़्ती से दबाए रखता| कभी कभी मेरे जबड़े दुखने लगते| डैंटिस्ट के मुताबिक़ मेरे निचले दाँतौं पर ऐसे निशान बन गय थे कह जैसे मेरा मूँह किसी आले मैं जकड़ा रखा हो| मेरे लड़के दोस्त मेरे लड़के जीवन साथी को सेते हूए मेरे दाँत ज़ोर ज़ोर से पीसने की आवाज़ौं से इतनी चिड़ हूई कह उस ने अपना कमरह ही बदल लिया| फिर और बच्चे भी उस ने मुझे यतीम ख़ाने से ला कर दे द्यिये| मैं आज उस दुनिया की नज़्रौं मैं लड़का नहीं बलकह ऐक बूढ़े उमर का मर्द बन ग्या|

 

पहली बार जब मेरा येही बिटा जो यतीम ख़ाने से लाया ग्या था सीढ़ियौं से गिर्ने की वजह से रो पड़ा तो मेरे इसी लड़के दोस्त ने इस बच्चे से काहा "तुम बुहत बहाद्दुर हो और गन्दे बच्चौं की तरह़ नह रोए" उस दिन मैं पहली बार अपने इसी होने वाले लड़के दोस्त पर धाड़ा| अपने बेटे को उठा लिया| मैं ने उसे चुप करवाने की कोशिश नहीं की| अपने कम्रे मैं ले जा कर उसे अपनी गोद मैं ले लिया| उस के माथे पर ख़ामोशी से अपने हौंट रख द्यिये| लेकिन यह हरगिज़ नहीं काहा कह ख़ामोश होजाओ| सारी ज़िन्दगी मैं ने उस को अपने लम्स के ऐह़सास से तक़वियत दी| मैं ने उस को सिखाया कह अगर दर्द हो तो चल्लिते हैं, रोना आऐ तो रोते हैं, दिल भर आये तो चीख़ भी लेते हैं| मेरी तो उमर ही पत्थर का लड़का के तअ़नौं मैं गुज़र गई| लोग अब  मेरी क़बर के पास से दिन मैं भी गुज़र्ने से डर्ते हैं| मेरी क़बर के बारे मैं मशहूर है कह रात गय यहाँ से ऊँची ऊँची आवाज़ैं आती हैं| मगर मुझे अब इस की परवाह नहीं है| अब मुझे किसी का ख़ौफ़ नहीं है| मेरी क़बर बेशक सुफ़ैद पत्थर की है| मगर मैं पत्थर का लड़का नहीं हूँ| अगर कुछ अर्से पहले ऐह़सास होजाता तो अपने लिये कोई एक दिवार ए ग्रिया उठा रख्ता ‌और सारी बातैं सारे दुख उसी से कहता जाता|


मालिक व मुसन्नफ़:  काशिफ़ फ़ारूक़| लाहौर पाकिस्तान से| 14-10-2019

 


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